सपा के मंच पर ‘धक्का राजनीति’: मिर्जापुर में दलित नेता को मंच से हटाकर पीडीए के नारे की खोली पोल!"कैप्शनमंच पर सियासी धक्का: मिर्जापुर में दलित नेता का अपमान, समाजवादी पार्टी की एकता पर बड़ा सवाल"अखिलेश के मंच पर दलित नेता को धक्का: पीडीए के नारे पर उठे सवाल, सपा की अंदरूनी खींचतान उजागर!"
"सपा के मंच पर ‘धक्का राजनीति’: मिर्जापुर में दलित नेता को मंच से हटाकर पीडीए के नारे की खोली पोल!"
कैप्शन
मंच पर सियासी धक्का: मिर्जापुर में दलित नेता का अपमान, समाजवादी पार्टी की एकता पर बड़ा सवाल"
अखिलेश के मंच पर दलित नेता को धक्का: पीडीए के नारे पर उठे सवाल, सपा की अंदरूनी खींचतान उजागर!"
जिला ब्यूरो चीफ
पत्रकार अंजनी मिश्र (शुभम् पण्डित)
संपर्क सूत्र--9170204024
( मिर्जापुर चुनावी ) मंच पर नारे गूंज रहे थे, भीड़ उत्साहित थी, और समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने प्रत्याशी के लिए वोट मांग रहे थे। लेकिन इस मंच पर एक ऐसा वाकया हुआ जिसने सपा की एकता और पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) के नारे पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
सपा के दलित समाज के मिर्जापुर जिलाध्यक्ष देवी प्रसाद चौधरी के साथ मंच पर जो हुआ, वह पार्टी के आंतरिक रिश्तों पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। चंदौली के सांसद वीरेंद्र सिंह मस्त ने, कैमरे की फ्रेम में आने के प्रयास में लगे चौधरी को सार्वजनिक मंच पर धक्का देकर बाहर कर दिया। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गया, जहां चर्चाओं का बाज़ार गर्म है और लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या वाकई सपा का पीडीए नारा केवल एक राजनीतिक औजार बनकर रह गया है?
घटना की विस्तृत जानकारी
यह घटना 17 नवंबर 2024 को मिर्जापुर में हुई, जहां अखिलेश यादव ने पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में एक रैली आयोजित की थी। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच तनातनी तब नजर आई, जब देवी प्रसाद चौधरी ने मंच पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की कोशिश की। वीडियो में साफ दिख रहा है कि जब चौधरी मंच पर फ्रेम में आने का प्रयास कर रहे थे, तब वीरेंद्र सिंह मस्त ने उन्हें एक धक्का देकर किनारे कर दिया, मानो यह कोई ‘सार्वजनिक मंच’ नहीं बल्कि ‘सत्ता का निजी खेल’ हो।
व्यंग्यात्मक विश्लेषण
इस घटना ने सोशल मीडिया पर चर्चा का सिलसिला शुरू कर दिया है, जहां लोग पूछ रहे हैं कि पार्टी का पीडीए नारा सिर्फ वोट बटोरने का औजार है या इसका पालन भी किया जाता है? एक ओर जहां अखिलेश यादव समानता और सद्भाव की बातें कर रहे थे, वहीं उनके मंच पर दलित नेता का इस तरह अपमान एक बड़ा सवाल बनकर उभर रहा है। यह घटना उन नेताओं को "ऊंची दुकान, फीके पकवान" का प्रतीक बना रही है, जो जनता को सबके साथ की बात करते हैं लेकिन पार्टी के मंच पर अपने ही नेताओं को किनारे कर देते हैं।
प्रश्न और आलोचना
सवाल उठता है, क्या पार्टी के लिए दलित समाज के नेता केवल ‘गिनती बढ़ाने का खेल’ बनकर रह गए हैं? एक ओर पार्टी का संविधान, समानता और सद्भाव की बातें करता है, तो दूसरी ओर व्यवहार में विपरीत होता दिखता है। यहां कहावत याद आती है, *“जिनके घर शीशे के हों, वे दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते।”* खुद के अंदर एकता की कमी को ढकते हुए जनता के सामने ‘पीडीए’ का नारा लगाना क्या पाखंड नहीं है?
संवैधानिक पहलू*
यह घटना लोकतंत्र और संवैधानिक समानता के सिद्धांतों का भी मजाक बनाती है। दलित समाज के नेताओं के साथ ऐसे व्यवहार से समाज में क्या संदेश जाता है? संविधान के अनुसार, सभी को समान अवसर मिलना चाहिए। पर यहां सपा जैसे दल के मंच पर अपने ही नेताओं का अपमान संवैधानिक मूल्यों के विपरीत जाता दिखता है। ऐसे मामलों में जिम्मेदार अधिकारियों का ध्यान जरूरी है ताकि एक पारदर्शी और सम्मानजनक राजनीति हो।
निष्कर्ष
इस पूरे वाकये ने सपा के नेतृत्व के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। पार्टी को यह तय करना होगा कि क्या दलित समाज का सम्मान वाकई उनकी प्राथमिकता है, या फिर यह सिर्फ एक नारा बनकर रह गया है। मंच पर घटित इस घटना ने चुनाव के समय सपा के नारे की असलियत को उजागर कर दिया है, और अब जनता देख रही है कि इस घटना पर पार्टी क्या कदम उठाती है।
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