ई बनारस हव गुरु, विश्व प्रसिद्ध रामलीला व काशी नरेश की कहानी, एक नजर इस पर भी
ई बनारस हव गुरु, विश्व प्रसिद्ध रामलीला व काशी नरेश की कहानी, एक नजर इस पर भी
अंजनी मिश्रा जिला ब्यूरो चीफ
कहने को तो यह रामलीला काशी नरेश ने शुरू कराई, लेकिन शुरू होने की वजह नारी ही बनी। यही नहीं जब इसके आयोजन को लेकर जब आर्थिक बाधाएं रास्ते में आई, तब भी एक नारी ही संकटमोचक बन के सामने आ गईं। फर्क बस इतना था कि एक रानी थी तो दूसरी बहूरानी। रानी ने ताना दिया तो रामलीला शुरू हो गई। बहूरानी ने दान दिया तो रामलीला की विरासत में एक और समृद्धिशाली इबारत जुड़ गई।
रामनगर की रामलीला का कैनवास जितना बड़ा है, इसका इतिहास उतना ही उलझा हुआ है। इसे लेकर न जाने कितने शोध हुए, लेकिन कोई भी इस बात की अकाट्य पुष्टि नहीं करता कि आखिर रामलीला वास्तव में शुरू कब हुई, लेकिन सारे शोध इस तथ्य पर लगभग सहमत है कि रामनगर की रामलीला का आरंभ महाराज उदित नारायण सिंह के कार्यकाल में हुआ था। जिनका शासन काल सन 1794 से 1835 तक था। रामलीला आरम्भ होने के बाबत कई किवदंतियां है, लेकिन सबसे विश्वसनीय किवदंति मिर्जापुर से जुड़ी हुई है। बताते है कि बरईपुर मिर्जापुर में भोनू और विट्ठल साहू नामक दो बनिया हर साल रामलीला कराते थे। महाराज उस रामलीला में बतौर अतिथि आमंत्रित किये जाते थे। धनुष यज्ञ की लीला थी। उस दिन महाराज से लीला में पहुंचने में थोड़ी देर हो गई। लीला के आयोजकों ने उनका इंतजार किये बगैर श्रीराम बने पात्र से धनुष तुड़वा दिया। महाराज को बीच रास्ते में ही ये बात पता चल गई। वे वापस लौट कर किले में आ गए। ये बात उन्हें इतना दुःखी कर गई कि वे उदास से रहने लगे। कई दिनों तक उनकी उदासी देख महारानी ने वजह पूछी। महाराजा ने उनको सारी बात बता दी। इस पर महारानी ने ताना मार दिया कि वे दोनों बनिया होकर रामलीला करा सकते हैं और आप महाराज होकर नहीं। बस ये बात महाराज को लग गई और उन्होंने रामनगर में लीला शुरू करवा दी। बाद में उन्होंने बरईपुर के दोनों भाईयो को आपस मे लड़ा दिया। दोनों भाई इस कदर लड़े कि उनका सबकुछ तबाह हो गया और बरईपुर की रामलीला हमेशा के लिए बंद हो गई।
महाराज उदित नारायण के समय रामलीला किले में ही होती थी। लीला का वर्तमान स्वरूप 1835 के बाद अस्तित्व में आया, जब महाराज ईश्वरी नारायण सिंह गद्दीनशीन हुए। उन्होंने वर्तमान लीला स्थलों का शोधन अपने गुरु काष्ठ जिह्वा स्वामी से कराया और हिंदी अवधी शैली में रामलीला के संवाद लिखवाये गए। लीला की धार्मिकता स्थापित करने के लिए रामचरित मानस के अनुसार हर प्रसंग के लिए अलग-अलग स्थल बनाये गए। पांच किलोमीटर की परिधि में अयोध्या, जनकपुर, चित्रकूट, पंचवटी, निषादराज आश्रम, पम्पासर, लंका आदि स्थल बनाये गए। तब से इन्ही स्थलों पर रामलीला के प्रसंगों का मंचन होता है। अब बहूरानी की बात। बताते हैं कि महाराज ईश्वरी नारायण सिंह के भाई बाबू नर नारायण सिंह की बहूरानी भौजी साहिबा के नाम से जानी जाती थी। उनका नैहर बेतिया बिहार में था। उन्होंने दहेज में मिले इस क्षेत्र के धनकुटवा इलाके को ही रामलीला में चढ़ा दिया था। इस इलाके से जितनी भी आमदनी होती थी, वह रामलीला में खर्च होती थी। बाद में दीवान कर्नल विन्ध्येश्वरी प्रसाद ने इस पूरे इलाके को बेच दिया और मिली रकम बैंक में जमा कर दी। इस रकम से साल भर जो ब्याज मिलती थी, उसी से रामलीला कराई जाती थी। लीला तो आज भी काशीराज परिवार ही कराता आ रहा है। ऐसे में लोगों को भौजी साहिबा का किसी जमाने में दिखाया गया समर्पण अक्सर याद आता है।
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